गिद्ध ( gidh ) By - Alok Mishra

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Published 2017-10-26
गिद्ध
शोर है,पर शान्त मै,भटका हुआ इस कोठरे मे।
हर कदम टेढा चलू ,क्युं हू फँसा इस सोरठे मे।

अंधी रातो मे निरंतर चलता हू इस आसार मे।
होगी सुबह, पर रात ये, है व्यस्त खुद प्रसार मे।

ये रास्ता तो है कठिन,क्या हीन ये आधार है।
पर हुँ रुका मै जिस जगह,वह ठौर भी मझधार है।

आकर यहाँ से लौट जाऊ,क्या नीव मेरी हीन है।
हार हो इन संकटो से क्या ये अधिक प्रवीन है।

हो नही सकता,मै अपने ध्येय का सम्राट हुँ।
कुछ क्षण पराजित खुद से था,पर खुद मे मै विराट हुँ।

इस खुद के अंदर चित्र जो उसको करूँगा सिद्ध मै।
हो दुर कितना लक्ष्य,पर अब बनूँगा गिद्ध मै।

लो उठा मै फिर चला,लक्ष्य अपने साध कर।
खुद को फिर मजबुत कर शक्ति सारी बाँध कर।

तुम भी बढो बढते रहो,कुछ लक्ष्य हो संसार मे।
कुछ कार्य भी करते रहो,मत व्यर्थ हो बेकार मे।

-आलोक मिश्रा

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